Shyama Prasad Mukherjee Advocate of Unified Governance and National Unity

देश में एक प्रधान, एक विधान और एक निशान का संदेश देने वाले श्यामा प्रसाद मुखर्जी


भारत में जब यशस्वी प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के नेतृत्व में 370 का अनुच्छेद हटाया गया तब मैं सोचता था कि जम्मू कश्मीर जब शुरू से भारत का हिस्सा था तो यह जरूरत ही क्यों आन पड़ी। जब इस विषय का अध्ययन किया तो मेरे मन में भारत सरकार के इस फैसले से गर्व हुआ। साथ ही अकूत श्रद्धा का पहला भाव जिस व्यक्ति के प्रति उत्पन्न हुआ। वे थे डॉ. श्यामा प्रसाद जी मुखर्जी। आज उनकी जयंती है और यह सीताराम पोसवाल उन्हें बड़े भावों के साथ नमन करता करता है। एक देश, एक झंडा और एक कानून का नारा हमारी राष्ट्रीय एकता का प्रतीक है। इस प्रतीक के सूत्रधार डॉ. मुखर्जी ही थे।

देश कागज पर बना टुकड़ा नहीं होता कि उसे लकीरों से पहचाना जाए। देश हमारे हृदय में पलता है। देश लोगों से बनता है, लोगों की भावनाओं से बनता है। किसी भी राष्ट्र की अखण्डता और एकता इन भावनाओं को और मजबूत करती है। जब ये भावनाएं मजबूत होती हैं तो ही देश मजबूत होता है। मजबूत रह पाता है और दुनिया के सामने एक विशिष्ट रूप में नजर आ सकता है। भारत की एकता एवं अखंडता के लिए अपने प्राणों का बलिदान देने वाले आदरणीय डॉ. श्यामा प्रसाद मुखर्जी एक ऐसे महान व्यक्तित्व हुए हैं जो करीब सवा सौ साल पूर्व ऐसे वक्त में भारत आए, जब देश गुलामी की जंजीरों में जकड़ा था।

भारतीय जनसंघ के संस्थापक अध्यक्ष देश में  ‘एक विधान, एक प्रधान और एक निशान’ विचार के अग्रदूत डॉ. मुखर्जी हमें प्रेरणा देते है। आज के तमाम युवाओं को प्रेरणा देते हैं, भाव जगाते हैं और भावों को पल्लवित करते हैं कि देश सेवा में वे अपने आपको झौंक दें। समर्पित कर दें। जब 2019 में भारत के यशस्वी प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के नेतृत्व में जम्मू कश्मीर से धारा 370 हटाई गई तब मुखर्जी का वह सपना पूरा हुआ जो उन्होंने दशकों पहले हमारे देश की आंखों में दिया था।

डॉ. श्यामा प्रसाद मुखर्जी जी एक ऐसे व्यक्तित्व थे जिन्होंने अपने सम्पूर्ण जीवन को भारत राष्ट्र की सेवा में समर्पित किया। उन्होंने अपने विचारों से भारत राष्ट्रीय एकता और अखंडता को मजबूती दी। वर्तमान की हिन्दुत्व विचारधारा में उनका योगदान महनीय हैं। मुखर्जी ने अपने पूरे जीवन में कई महत्वपूर्ण पदों पर कार्य किया, जिसमें उनके राष्ट्रीय सेवा में उनके योगदान की प्रशंसा शब्दातीत है। उन्होंने भारतीय राजनीति में अपनी विशेष पहचान बनाई। कश्मीर के मामलों में उनकी भूमिका तो खासी प्रभावी रही हैं।

डॉ. श्यामा प्रसाद मुखर्जी जी ने भारतीय राजनीति और समाज को एक ऐसी दिशा दी, जो स्थायितत्व का भाव लिए हुए हैं। उनके सोचने का विशेष महत्व भी है। डॉ. मुखर्जी की प्रेरणा और योगदान को स्मरण करते हुए आज के युवा ही नहीं ​बल्कि भारत सरकार भी अपनी नीतियों का अधार तय कर रही है। इसी के चलते हम कहने में सक्षम हैं कि भारत विश्व गुरू बनने की दिशा में आगे बढ़ रहा है। 

डॉ. श्यामा प्रसाद मुखर्जी का जीवन परिचय

श्यामा प्रसाद मुखर्जी का जन्म 6 जुलाई 1901 को कलकत्ता (अब कोलकाता) में एक बंगाली ब्राह्मण में हुआ था। उनके पिता, आशुतोष मुखर्जी, कलकत्ता उच्च न्यायालय के न्यायाधीश और कलकत्ता विश्वविद्यालय के कुलपति थे। मुखर्जी एक मेधावी छात्र थे जिन्होंने कलकत्ता विश्वविद्यालय से अंग्रेजी में स्नातक और कानून की डिग्री प्राप्त की। 1921 में, उन्होंने कलकत्ता विश्वविद्यालय से अंग्रेजी में प्रथम श्रेणी में प्रथम स्थान प्राप्त किया। 1924 में, उन्होंने कलकत्ता उच्च न्यायालय में वकालत शुरू की। 1926 में, वे इंग्लैंड गए और उन्हें इंग्लिश बार में बुलाया गया। 1934 में, 33 वर्ष की आयु में, वे कलकत्ता विश्वविद्यालय के सबसे कम उम्र के कुलपति बने। उन्होंने 1938 तक कुलपति के रूप में कार्य किया। इस दौरान, उन्होंने कई महत्वपूर्ण सुधार किए, जैसे कि रवींद्रनाथ टैगोर को बंगाली में विश्वविद्यालय दीक्षांत भाषण देने और भारतीय भाषाओं को सर्वोच्च परीक्षा के विषय के रूप में पेश करने की अनुमति देना। 1946 में, मुखर्जी भारत के संविधान सभा के सदस्य चुने गए। उन्होंने अनुच्छेद 370 का विरोध किया, जो जम्मू और कश्मीर को विशेष दर्जा देता था। उनका मानना था कि यह अनुच्छेद भारत की एकता और संप्रभुता के लिए हानिकारक था। 1951 में, उन्होंने भारतीय जनसंघ की स्थापना की, जो एक राष्ट्रवादी हिंदू राजनीतिक दल के रूप में पूरी दुनिया में मशहूर हुए। वे 1952 में भारत के पहले कानून मंत्री बने। यह जीवन परिचय मुखर्जी के लिए पर्याप्त कह दिया जरूरी नहीं है तो उनके विचारों और उनके व्यक्तित्व पर विशेषत: बात करेंगे।

एक प्रधान, एक विधान, एक निशान का नारा

डॉ. श्यामाप्रसाद मुखर्जी ने ‘एक प्रधान, एक विधान, एक निशान’ के नारे माध्यम से राष्ट्रीय एकता और अखंडता को आकार देने में महत्वपूर्ण योगदान दिया। उन्होंने यह विचार प्रस्तुत किया कि भारतीय समाज का एकीकरण और विकास केवल इस विचार के माध्यम से ही संभव है। अन्यथा देश के टुकड़े होते देर नहीं लगेगी। उनका यह व्यापक दृष्टिकोण भारतीय राजनीतिक विचारधारा को नई दिशा देने में महत्वपूर्ण रहा और उन्होंने इसे अपने जीवन के हर क्षण प्रत्येक विचार और व्यवहार में अपनाया भी।

कश्मीर भारत का अंग है यह प्रबल विचार मुखर्जी का

जहां हुए बलिदान मुखर्जी वह कश्मीर हमारा है। पूरे भारत में यह नारा है क्योंकि वे डॉ. श्यामाप्रसाद मुखर्जी ही थे जिन्होंने कश्मीर के प्रति आम जनमानस के भावों और भावनाओं को पुष्ट किया। मुखर्जी, भारतीय जनसंघ के संस्थापक तो थे वे भारत के पहले कश्मीर मामलों के मंत्री बनाए गए। अंतरिम सरकार में रहते हुए उन्होंने कश्मीर को भारत में मिलाने के लिए प्रबल प्रयास किए। वे कश्मीर मुद्दे पर अपने दृष्टिकोण और विचारों के लिए प्रसिद्ध हुए और पूरी संसद तथा देश में यह विचार प्रभावी करने में सफल रहे कि ‘एक प्रधान, एक विधान, एक निशान’ के सिद्धांत के अंतर्गत भारतीय अखंडता जरूरी है। इसी अखण्डता के समर्थन में मुखर्जी ने कश्मीर को अभिव्यक्त किया। उनका स्पष्ट तौर पर मानना था कि कश्मीर भारत का अभिन्न अंग है और वहां के निवासियों के अधिकारों का भारतीय के नाते सम्मान करना चाहिए।

अनुच्छेद 370 का प्रबल विरोध

मुखर्जी ने अनुच्छेद 370 का प्रबल विरोध किया, जो जम्मू-कश्मीर को विशेष दर्जा देता था। परन्तु कांग्रेस इसके पक्ष में रही और देश में दो कानून चलते रहे। भारत का संविधान अलग और कश्मीर का कानून अलग। मुखर्जी का मानना था कि यह अनुच्छेद भारत की एकता और संप्रभुता के लिए हानिकारक है। डॉ. मुखर्जी ने भारतीय संघ के गठन के समय से ही कश्मीर मुद्दे को महत्वपूर्ण मानते हुए और उसके भारत के अंग होने की बात कहते रहे। उनके विचार और दृष्टिकोण ने कश्मीर मुद्दे पर भारतीय राजनीति को नई दिशा दी और उसे समाधान की दिशा में आगे बढ़ाने में मदद की। उनके योगदान और सोच आज भी भारतीय राजनीति में महत्वपूर्ण माने जाते हैं। मुखर्जी का स्पष्ट तौर पर मानना था कि जम्मू-कश्मीर को भारत के बाकी राज्यों की तरह ही शासन किया जाना चाहिए। उन्होंने एक अलग झंडा और संविधान के विचार का विरोध किया। 

जम्मू कश्मीर के लिए यह कहा

मुखर्जी ने कहा कि जम्मू कश्मीर भारत का अभिन्न अंग है। ऐसे में जम्मू-कश्मीर के सभी नागरिकों को, चाहे वे किसी भी धर्म या समुदाय से हों समान अधिकार और अवसर प्राप्त दिए जाने चाहिए। उन्होंने कश्मीर की समृद्ध सांस्कृतिक और धार्मिक विरासत की रक्षा करने की वकालत की। उन्होंने सभी धर्मों के लोगों के लिए पूजा-अर्चना की स्वतंत्रता पर जोर दिया।

आर्थिक विकास: मुखर्जी का मानना था कि जम्मू-कश्मीर में आर्थिक विकास को बढ़ावा देना महत्वपूर्ण है। उन्होंने पर्यटन और उद्योग को बढ़ावा देने के लिए नीतियां बनाने का आह्वान किया। डॉ. श्यामाप्रसाद मुखर्जी ने जम्मू-कश्मीर के लोगों के कल्याण और भारत के साथ इसके मजबूत संबंधों के लिए अपना जीवन समर्पित कर दिया। उनका मृत्यु 30 जून 1953 को जम्मू-कश्मीर की यात्रा के दौरान संदिग्ध परिस्थितियों में हुआ निशन आज भी हमारे लिए एक गहरा दंश है।

बंगाल का विभाजन: मुखर्जी ने कहा जो मुसलमान पाकिस्तान जाना चाहें…

बंगाल के राष्ट्रीय विभाजन के समय श्यामा प्रसाद मुखर्जी ने हिंदू महासभा के माध्यम से एक प्रभावी भूमिका निभाई। 1939 में उन्होंने हिंदू महासभा में शामिल होकर अपने राजनीतिक जीवन की शुरुआत की और बाद में इसके कार्यकारी अध्यक्ष भी बने। उन्होंने बंगाल के हिंदू समुदाय की राजनीति को खासा प्रोत्साहित किया, जिसमें भारत विभाजन के प्रस्तावों का विरोध भी शामिल था।

1940 में श्यामा प्रसाद मुखर्जी को हिंदू महासभा के कार्यकारी अध्यक्ष नियुक्त किया गया। इससे उनके विचार राष्ट्रीय स्तर पर आए। उनके सकारात्मक और संघर्षपूर्ण दृष्टिकोण ने उन्हें 1943 तक इस संगठन के अध्यक्ष के रूप में बनाए रखा। उनकी एक महत्वपूर्ण योजना थी बंगाल का विभाजन को रोकना। जिसका उद्देश्य था हिंदू बहुल क्षेत्रों को मुस्लिम बहुल पूर्वी पाकिस्तान में शामिल होने से बचाना। इसके लिए उन्होंने कई सामाजिक और राजनीतिक कार्यक्रम आयोजित किए और राष्ट्रीय स्तर पर इस मुद्दे को बहुत ही प्रभावी तरीके से उठाया। श्यामा प्रसाद मुखर्जी का संघर्ष और उनके विचार बंगाली हिंदू समाज के लिए महत्वपूर्ण थे, जो विभाजन के प्रस्तावों और उनके समाज के भविष्य के लिए जूझ रहे थे। उनके प्रयासों ने उन्हें एक महान राजनीतिक नेता के रूप में याद किया जाता है, जिनका योगदान भारतीय राजनीति के इतिहास में अमर रहेगा।

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जम्मू-कश्मीर के विशेष दर्जे पर श्यामा प्रसाद मुखर्जी

जम्मू-कश्मीर में कांग्रेस की नेहरू सरकार का अनुच्छेद 370 का समर्थन के बाद श्यामा प्रसाद मुखर्जी ने इसका सख्ती से विरोध किया। उन्होंने संसद और बाहर इसके खिलाफ लड़ाई लड़ी और 1952 में अपने लोकसभा भाषण में इसे पुरजोर तरीके से उठाया। नेहरू और मुखर्जी के बीच मतभेद और भी गहरे हो गए। मुखर्जी ने इसे भारत के बाल्कनीकरण के रूप में देखा और शेख अब्दुल्ला के द्विराष्ट्र सिद्धांत के खिलाफ आवाज उठाई। मुखर्जी ने कहा था कि दो विधान, दो प्रधानमंत्री और दो राष्ट्रीय प्रतीक नहीं हो सकते। उनके प्रयासों से हिंदू महासभा और जम्मू प्रजा परिषद ने साथ मिलकर बड़े पैमाने पर सत्याग्रह शुरू किया, जिसका परिणामस्वरूप 1953 में उन्हें कश्मीर जाने से रोक दिया गया। संदिग्ध परीस्थितियों में उनका पार्थिव शव मिला, 1953 में, लेकिन उनके विचार और प्रयास आज भी भारतीय राजनीति में महत्वपूर्ण हैं।

मुखर्जी की गिरफ्तारी नेहरू की साजिश

उनके निधन के संबंध में जानकारी है कि श्यामा प्रसाद मुखर्जी जब जम्मू कश्मीर जाने लगे तो उन्हें 11 मई 1953 को जम्मू-कश्मीर में प्रवेश करते ही गिरफ्तार कर लिया गया। उन्हें और उनके दो साथियों को पहले श्रीनगर की सेंट्रल जेल में बंद कर दिया गया। बाद में एक कॉटेज में स्थानांतरित किया गया। मुखर्जी का स्वास्थ्य बिगड़ने लगा। गलत उपचार अथवा साजिश यह कारण रहा कि उनकी मनाही के बावजूद उन्हें स्ट्रेप्टोमाइसिन इंजेक्शन और पाउडर दिया गया। इससे दिल का दौरा पड़ा और 23 जून को सुबह 3:40 बजे उनकी मृत्यु हो गई। देश के सपूत मुखर्जी के निधन ने पूरे देश में व्यापक संदेह पैदा किया और स्वतंत्र जांच की मांग उठाई गई। प्रधानमंत्री नेहरू के अनुसार इसमें कोई रहस्य नहीं था। हालांकि, श्यामा प्रसाद मुखर्जी की मां जोगमाया देवी ने नेहरू से निष्पक्ष जांच की मांग की। परन्तु कोई जांच आयोग गठित नहीं हुआ। अटल बिहारी वाजपेयी ने 2004 में जम्मू-कश्मीर में मुखर्जी की गिरफ़्तारी को “नेहरू की साजिश” बताया और उनकी मृत्यु को एक अभेद्य रहस्य कहा। इससे साबित होता है कि कांग्रेस के कारण देश ने एक महान सपूत महज 52 साल की उम्र में खोया।

-सीताराम पोसवाल की कलम से…


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