गुरु और शिष्य के बीच के एक शाश्वत बंधन है और इस बंधन को उत्सव के रूप में मनाते हैं उसे ही गुरु पूर्णिमा कहा जाता है। यह एक ऐसा रिश्ता है जो समय और स्थान की सीमाओं को पार करता है। यह उन सभी लोगों का सम्मान करने का दिन है जो हमें मार्गदर्शन करते हैं और हमारे जीवन पर उनके गहन प्रभाव को दर्शाते हैं। मैं सीताराम पोसवाल अपने मन—वचन और कर्म से माता—पिता, गुरुजन और तमाम उन महानुभावों के प्रति कृतज्ञता और श्रद्धा व्यक्त करता हूं जिन्होंने मुझे मार्गदर्शन दिया।
चूंकि आज ही का दिन हमें अपने दैनिक जीवन में अपने गुरुओं की शिक्षाओं को अपनाते हुए सीखने और आत्म-साक्षात्कार के मार्ग पर भी चलने की सीध देता है। ऐसे में यह भाव तो एक न्यून योगदान है। यह कृतज्ञता किसी एक दिन नहीं बल्कि सतत बनाए रखने की जरूरत है।
चूंकि हिन्दू परम्परा में गुरु-शिष्य परम्परा ज्ञान और सांस्कृतिक विरासत की निरंतरता का प्रमाण है। इस अटूट शृंखला के माध्यम से ही ज्ञान पीढ़ी दर पीढ़ी आगे बढ़ता है, जिससे यह सुनिश्चित होता है कि पूर्वजों की शिक्षाएँ जीवित और प्रासंगिक बनी रहें।
इसलिए मनाते हैं गुरु पूर्णिमा
हिंदू महीने आषाढ़ की पूर्णिमा के दिन यह उत्सव प्रतिवर्ष मन को एक आधार देता है कि हम अपने गुरुजनों के प्रति कृतज्ञ हों। यह केवल एक व्यक्ति के मन के भाव होकर न रह जाएं इसलिए इसे उत्सव के रूप में मनाया जाता है। गुरु पूर्णिमा का महान दिन भारतीय संस्कृति और आध्यात्मिकता में एक बड़ा महत्व रखता है और गुरु और शिष्य के बीच के बंधन को गहरा करता है।
गुरु पूर्णिमा बाजार का उत्सव नहीं
यह एक बाजार का बनाया हुआ उत्सव नहीं, इसलिए हम लोग मन की गहराई से इस दिन गुरु के प्रति श्रद्धावनत होते हैं। गुरु पूर्णिमा एक दिन उनके प्रति श्रद्धा और कृतज्ञता की परम्परा का प्रतीक दिवस है। इसकी बाजारी वैलेंटाइन डे या टीचर्स डे जैसे दिवसों से तुलना सर्वथा अनुचित होगी। यह आज का उत्सव नहीं बल्कि इसकी उत्पत्ति प्राचीन भारतीय परंपराओं में देखी जा सकती है। यह वही दिन था जब महाभारत और पुराणों के रचयिता महान ऋषि वेदव्यास जी का जन्म हुआ था। व्यास को ज्ञान का प्रतीक माना जाता है और उन्हें अक्सर ‘आदि गुरु’ यानि (प्रथम शिक्षक) के रूप में सम्मानित किया जाता है। साहित्य और आध्यात्मिक शिक्षाओं में उनके योगदान के सम्मान में, इस दिन को गुरु पूर्णिमा के साथ ही व्यास पूर्णिमा के रूप में भी जाना जाता है।
पूरे सनातन परम्परा का उत्सव
यह पूरे सनातन परम्परा में गुरु—शिष्यों का प्रतीक उत्सव है। इसे सगुण—निर्गुण सभी मनाते हैं। यहां तक कि बौद्ध परंपरा में, गुरु पूर्णिमा वह दिन है जब गौतम बुद्ध ने ज्ञान प्राप्ति के बाद सारनाथ में पहला उपदेश दिया था। यह दिन बुद्ध की शिक्षाओं की शुरुआत का प्रतीक है, जो आध्यात्मिक जागृति की ओर मार्गदर्शन करने में शिक्षक के महत्व पर जोर देता है। इसलिए इसका महत्व शब्दों में बखाना भी नहीं जा सकता।
‘गुरु’ शब्द का अर्थ है ‘अंधकार को दूर करने वाला
गुरु और शिष्य के बीच का संबंध भारतीय दर्शन में सबसे सम्मानित और पवित्र संबंधों में से एक है। संस्कृत में ‘गुरु’ शब्द का अर्थ है ‘अंधकार को दूर करने वाला।’ गुरु केवल शैक्षणिक ज्ञान का शिक्षक नहीं है, बल्कि एक मार्गदर्शक है जो शिष्य को अज्ञानता के अंधकार से ज्ञान और बुद्धि के प्रकाश की ओर ले जाता है। संस्कृत में कहा भी है कि तमसो मा ज्योतिर्गमय अर्थात जो हमें अंधकार से प्रकाश की ओर ले जाए।
गुरु : गहरा दार्शनिक आधार
गुरु शिष्य की परम्परा भारतीय दर्शन में, गुरु को व्यक्तिगत आत्मा और परम वास्तविकता (ब्रह्म) के बीच एक महत्वपूर्ण कड़ी के रूप में है। गुरु की शिक्षाएँ प्रत्येक शिष्य को जीवन की जटिलताओं को समझने और अस्तित्व के गहरे सत्य को समझने में मदद करती हैं। यह रिश्ता विश्वास, सम्मान और ज्ञान और आत्म-साक्षात्कार की खोज के लिए आपसी प्रतिबद्धता पर आधारित है।
उपनिषद और भगवद गीता जैसे प्राचीन ग्रंथ आध्यात्मिक विकास में गुरु की भूमिका पर जोर देते हैं। मुंडका उपनिषद में कहा गया है, “यह जानने के लिए, व्यक्ति को ऐसे शिक्षक के पास जाना चाहिए, जिसे वास्तविकता की स्पष्ट समझ हो और जिसकी आत्मा शांत हो। ऐसे शिक्षक के पास, छात्र को शिक्षा के लिए ईंधन लेकर जाना चाहिए।” यह गुरु के मार्गदर्शन की तलाश में शिष्य से अपेक्षित विनम्रता और समर्पण को उजागर करता है।
गुरु पूर्णिमा मनाना इसलिए जरूरी
हमें गुरु पूर्णिमा क्यों मनानी चाहिए? बड़ा सवाल इस बाजारवाद के युग में आता है। परन्तु गुरु पूर्णिमा पर गुरु का सम्मान करने वाले विभिन्न अनुष्ठान और समारोह भारतीय संस्कृति का प्रतीक है और सनातनी लोग गुरु के प्रति श्रद्धा रखते हैं। गुरु का ध्यान करते हैं, उपवास करते हैं, गुरु को उपहार देते हैं उनके प्रति भावों का समर्पण करते हैं। अपने जीवन में अपने गुरुओं की शिक्षाओं और उनके प्रभाव पर चिंतन करते हैं। यह सभी कार्य हमें गुरु के माध्यम से परमात्मा तक मिलाने का रास्ता है। गुरु कुम्हार सिस कुम्भ है… कबीर ने गुरु को सृजक की संज्ञा दी है उसी तरह जैसे कुम्हार घड़े को उपर से चोट देता है और भीतर से सहारा। ऐसे ही एक सच्चा गुरु शिष्य का जीवन गढ़ता है।
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गुरु पूर्णिमा सिर्फ अनुष्ठान का दिन नहीं
यदि हम गुरु पूर्णिमा को आयोजन तक समेटकर रख दें तो यह भी ठीक नहीं। यह केवल अनुष्ठानों का दिन नहीं है; यह सीखने और आत्म-खोज की निरंतर यात्रा की याद दिलाता है। यह हमें ज्ञान के गहरे अर्थ और हमारे जीवन में शिक्षक की भूमिका पर विचार करने के लिए प्रेरित करता है। भारतीय दर्शन के अनुसार, जीवन का अंतिम लक्ष्य आत्म-साक्षात्कार या अपने वास्तविक स्वरूप को समझना है। गुरु इस यात्रा में एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं, जो स्वयं को तलाशने और समझने के लिए आवश्यक ज्ञान और उपकरण प्रदान करते हैं। गुरु की शिक्षाएँ शिष्य को अहंकार की सीमाओं को पार करने और सभी अस्तित्व की परस्पर संबद्धता का एहसास करने में मदद करती हैं।
विनम्रता का गुण लाती है गुरु पूर्णिमा
गुरु पूर्णिमा ज्ञान की खोज में विनम्रता के महत्व को भी उजागर करती है। शिष्य को गुरु के पास हमेशा ही विनम्र हृदय से जाना चाहिए, यह पहचानते हुए कि सच्चे ज्ञान के लिए अहंकार को त्यागना और सीखने और बढ़ने की इच्छा की आवश्यकता होती है। क्यों कि गुरु की शिक्षाएँ केवल सैद्धांतिक नहीं हैं; वे शिष्य के आंतरिक अस्तित्व को बदलने के लिए हैं। सच्ची शिक्षा में एक गहन आंतरिक परिवर्तन शामिल होता है, जो एक अधिक प्रबुद्ध और दयालु अस्तित्व की ओर ले जाता है।
मैं इस महान दिवस पर एक बार फिर से अपने गुरुजनों को नमन करता हूं और उनकी बताई शिक्षा के लिए उनके प्रति हृदय की गहराई से कृतज्ञता व्यक्त करता हूं।
— सीताराम पोसवाल