25 जून 1975 को इंदिरा गांधी की ओर से जबरन थोपा गया आपातकाल भारतीय लोकतंत्र के इतिहास में एक काला अध्याय है। इंदिरा गांधी के नेतृत्व वाली कांग्रेस सरकार की सत्ता के प्रति अपनी लोलुपता में भारतीय जनता के लोकतांत्रिक अधिकार बुरी तरह कुचल दिए गए। भारत जैसे महान लोकतंत्र में जहां हमारा संविधान हमें गरिमापूर्ण आजादी से जीवन जीने का अधिकार देता है।
भारतीय जनसंघ और राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की राष्ट्रवादी विचाराधारा से ओतप्रोत नायकों ने इस आपातकाल का डटकर विरोध किया और लोकतंत्र की रक्षा के लिए अपने आपको कष्टों में झौंका। आपातकाल में मीसा कानून में बंद किए गए लोगों के संघर्ष ने यह स्पष्ट कर दिया कि भारतीय जनता किसी भी परिस्थिति में लोकतंत्र की हत्या बर्दाश्त नहीं करेगी। राष्ट्रवादी विचारधारा से ओतप्रोत नायकों को सुनें तो यह महसूस होता है कि हमें इस आपातकाल ने यह बताया कि कांग्रेस सत्ता पर काबिज रहने के लिए किस हद तक गिर सकती है। वह हद यह थी कि देश की न्यायपालिका के आदेश को ही कुचल दिया गया था। संविधान का एक नहीं बल्कि सारे स्तंभों को गिरा दिया गया। यही नहीं इस दुरुह समय में संघर्षशील लोगों ने भारतीय लोकतंत्र को और मजबूत किया और देश की जनता को यह बताया कि स्वतंत्रता और लोकतंत्र के लिए हमेशा सतर्क और संघर्षशील रहना जरूरी है।
जख्म आज भी गहरे हैं, क्योंकि कांग्रेस कुरेदती है
पांच दशक बीतने को है, लेकिन जख्म आज भी गहरे हैं। जख्म गहरे क्यों है क्योंकि सत्ता पाने पर हर बार कांग्रेस इन्हें कुरेदती रहती है। जिन्होंने मीसा कानून में बेवजह जेल काटी और लोकतंत्र को बचाने के लिए संघर्ष किया। उन्हें यह पार्टी हर बार नीचा दिखाती है। बड़ी तकलीफ होती है कि लोकतंत्र के सेनानी आज अपने बुढ़ापे में संघर्ष कर रहे हैं और सम्मान के तौर पर दी जाने वाली पेंशन के लिए जब कांग्रेस उन्हें जलील करती है।
ये सिर्फ मृत्यु नहीं हत्याएं थी!
जनसंघ के कार्यकर्ताओं को आपातकाल के वक्त जेल में बंद कर कई महीनों तक यातनाएं दी गई। इससे कई लोगों की जेल में ही मृत्यु हो गई। क्या ये सिर्फ मृत्यु थी, हत्याएं नहीं! इन्हें हत्याएं ही कहा जाएगा। आंकड़े बताते हैं कि देशभर में 34 हजार से अधिक मीसाबंदियों को गिरफ्तार किया गया और प्रेस पर प्रतिबंध से अभिव्यक्ति की आजादी छीन ली गई थी। 25 जून 1975 से 1977 के 21 मार्च तक के दिन तक देशभक्तों ने जिन यातनाओं को आजाद भारत में सहा वह भुलायी तो नहीं जा सकती। इस वक्त के बीच इस दौरान हमारे आजाद देश में राजनीतिक, सामाजिक और आर्थिक परिवर्तनों के साथ-साथ अत्याचार की पराकाष्ठा तथा और मानवाधिकार हनन की हजारों घटनाएं भी घटीं। एक ऐसे कठिन और चुनौतीपूर्ण दौर में मीसाबंदियों की भूमिका पर बात करनी बनती है, जिन्होंने लोकतंत्र में आस्था को अपने रक्त और पसीने से सींचा। अपने विचारों से पोषित किया। एक ऐसा चुनौतीपूर्ण और मुश्किल दौर, जिसमें राज्य के राजनीतिक और सामाजिक ढांचा हिल गया था। मीसा के तहत की गई गिरफ्तारियां पूरे देश में भय पैदा कर गई। कैसे जिए होंगे वे परिवार! जिनके लोग सिर्फ इसलिए जेल में डाल दिए गए, कि उन्होंने अत्याचार के खिलाफ सिर झुकाने से इनकार किया था।
आपातकाल में संघर्ष में तपकर निखरे महान नेता
आपातकाल के दौरान जेल में डाले गए नेताओं का मैं एक—एक करके जिक्र करूं तो यह संभव नहीं कि नाम गिनाए जा सकें।
जेल में डाले गए ऐसे महान नेताओं की सूची बहुत लंबी है, जिन्हें इंदिरा गांधी की सरकार ने राजनीतिक विरोध और असहमति जताने पर गिरफ्तार किया था। इनमें से कई नेता जनसंघ और बाद में 1980 में गठित हुई भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) तथा अन्य विपक्षी दलों के भी थे। यहां तक कि राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघर्ष के सरसंघचालक आदरणीय बालासाहब देवरस जी को भी गिरफ्तार कर लिया गया। यही नहीं भाजपा के संस्थापक सदस्यों में से एक और भारत के पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी, भाजपा के प्रमुख नेता और भारत के पूर्व उपप्रधानमंत्री लालकृष्ण आडवाणी, भाजपा के वरिष्ठ नेता और भारतीय जनसंघ के प्रमुख सदस्यों में से एक मुरली मनोहर जोशी, संपूर्ण क्रांति आंदोलन के नेता और आपातकाल के मुखर विरोधी जयप्रकाश नारायण, बाद में भारत के प्रधानमंत्री बने मोरारजी देसाई, भारतीय किसान नेता और बाद में पीएम बने चौधरी चरण सिंह, समाजवादी नेता और ट्रेड यूनियनिस्ट, जो बाद में भारत के रक्षा मंत्री बने जॉर्ज फर्नांडिस, राजमाता विजयाराजे सिंधिया, समाजवादी नेता और स्वतंत्रता संग्राम सेनानी राम मनोहर लोहिया, जयपुर की पूर्व महारानी गायत्री देवी, युवा तुर्क चन्द्रशेखर जो बाद में देश के पीएम भी बने गिरफ्तार किए गए। इसके अलावा हाल ह में भारत रत्न पाने वाले कर्पूरी ठाकुर, मोदी सरकार में सहयोगी दल जनता दल (यू) के नेता शरद यादव, जयपुर के महाराजा मान सिंह, आरजेडी के नेता लालू यादव आदि प्रमुख थे। राजस्थान के नेताओं में पूर्व मुख्यमंत्री भैरोंसिंह शेखावत, घनश्याम तिवाड़ी, मास्टर आदित्येंद्र, कालीचरण सर्राफ, पंडित रामकिशन, राजेन्द्र गहलोत, किरोड़ीलाल मीणा आदि प्रमुख थे।
मजबूत लोकतंत्र के प्रति समर्पण भाव
इन समेत हजारों नेताओं को जेल में डालकर उन पर अत्याचार भी किए गए। यही नहीं परिवारों को प्रताड़ित भी किया गया। लोग अपनी नौकरी, धन, व्यापार और अमूल्य समय गंवा बैठे और मानस में गहरी क्रूरता के जख्म लिए जेलों से लौटे कि बाद में भी जीवन सामान्य नहीं रह पाया। इन लोगों ने जेल में रहते हुए भी अपने लोकतांत्रिक मूल्यों और सिद्धांतों को इन नेताओं ने नहीं छोड़ा और आपातकाल का लगातार विरोध करते रहे। यही नहीं आपातकाल के बाद, इन लोगों ने भारतीय राजनीति में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई और देश में लोकतंत्र की पुनर्स्थापना करने में बहुत अहम योगदान दिया। कहना गलत नहीं होगा कि इन्होंने जनता के अधिकारों की रक्षा के लिए संघर्ष किया और हमारे देश भारत को एक मजबूत लोकतांत्रिक देश बनाने के लिए अपने प्रयास निरंतर जारी रखे।
प्रेस सेंसरशिप और जबरन नसबंदी
उस वक्त देश में सभी प्रमुख समाचार पत्रों और पत्रिकाओं पर कड़ी सेंसरशिप थी। सरकार के खिलाफ कोई खबर प्रकाशित नहीं हो सकती थी। रेडियो और टेलीविजन पर भी सरकार का पूरा नियंत्रण था, जिससे केवल सरकारी दृष्टिकोण जो इंदिरा सरकार की तारीफ कहे वही जनता तक पहुंचाया गया। आमजन की पीड़ा को देखें तो वह और भी भयावह हो गई जब आपातकाल में जबरन नसबंदी की जाने लगी। देश के ग्रामीण इलाकों में इसका व्यापक असर देखा गया, जिससे लोगों में भारी असंतोष और डर पैदा हो गया। इस क्रूरतापूर्ण और मूर्खता से भरे सरकारी अभियान के कारण अनेक लोग अपंग हो गए और कइयों की जान चली गई।
हमारे लोकतंत्र का पूरी दुनिया में मजाक उड़ा
आपातकाल के दौरान देश की आम जनता पर व्यापक अत्याचार हुए। विपक्षी नेताओं, कार्यकर्ताओं को तो छोड़िए आम नागरिकों को भी बिना किसी कारण के ही गिरफ्तार कर लिया गया। पूरे देश में इंस्पेक्टर राज था। तमाम जेलें कैदियों से भरी पड़ी थीं और लोगों को यातनाएं दी जा रही थीं। विशेष रूप से इंदिरा सरकार के कारिंदे राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के कार्यकर्ताओं को निशाना बना रहे थे। आरएसएस की शाखाओं को बंद कर दिया गया, संघ के कार्यकर्ताओं को गिरफ्तार करके उन पर बर्बरतापूर्वक अत्याचार किए गए। जनसंघ के नेताओं और कार्यकर्ताओं को भी आपातकाल के दौरान अत्यधिक यातनाएं झेलनी पड़ीं। प्रेस की स्वतंत्रता पर प्रतिबंध लगा दिया गया। सेंसरशिप ने न केवल सच को दबाया बल्कि भारतीय जनता को गुमराह करने का भी कार्य किया। आपातकाल के दौरान न केवल भारतीय प्रेस ने अपनी स्वतंत्रता खो दी बल्कि पूरी दुनिया में भारतीय लोकतंत्र एक मजाक बनकर रह गया।
आरएसएस बना भारतीय लोकतंत्र का संरक्षक
इन सब अत्याचारों के बावजूद दुनिया के सबसे बड़े संगठन राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ ने आपातकाल के दौरान अपनी महत्वपूर्ण और महान भूमिका निभाई। संघ के स्वयंसेवकों ने खुले तथा गुप्त रूप से लगातार विरोध प्रदर्शनों का आयोजन करके जनता को न केवल जागरूक किया। बल्कि संगठित भी किया। संघ ने प्रतिबंध के बावजूद सतत रूप से लोकतंत्र की रक्षा के लिए संघर्ष किया। संघ की विचारधारा ने देशभर में लोकतांत्रिक मूल्यों की रक्षा और पुनर्स्थापना में सबसे महत्वपूर्ण योगदान दिया। आपातकाल के विरोध में राष्ट्रीय स्वंयसेवक संघ के प्रयासों को आज भी सराहा जाता है। आरएसएस की इस भूमिका को भारतीय लोकतंत्र के संरक्षक के रूप में माना जाता है।
कैदियों ने रखा लोकतंत्र आजाद
राष्ट्रवादी विचारधारा के अनुसार, इंदिरा गांधी द्वारा थोपा गया आपातकाल एक ऐसा समय था। जब भारतीय लोकतंत्र और नागरिक स्वतंत्रता पर कांग्रेस ने ऐसा हमला किया कि पूरी दुनिया में हमारे देश के लोकतंत्र की किरकिरी हो गई। दुनिया को लगा कि भारत एक तानाशाही मुल्क बनकर रह जाएगा। परन्तु राष्ट्रवाद से पूरित जनसंघ और राष्ट्रीय स्वंयसेवक संघ की विचारधारा से पूरित नायक, जिन्हें मीसाबंदी और डीआईआर बंदी कहा जाता रहा। उन्होंने लोकतंत्र, राष्ट्रीयता और जनतांत्रिक मूल्यों को जीवित रखा। आपातकाल ने यह साफ तौर पर साबित कर दिया कि एक ओर सत्ता के लिए किसी भी हद तक जाने वाली कांग्रेस की विचारधारा भारतीय लोकतंत्र के लिए खतरा है और दूसरी तरफ देशधर्म पर मिटने वालों की कतार भी लम्बी है जो देश के लोकतंत्र को अमर रखेगी। कैदियों द्वारा लोकतंत्र को आजाद और अमर रखने का अनूठा उदाहरण पूरी दुनिया में नहीं मिलेगा।
आज भी तानाशाही सोच रखती है कांग्रेस
आज भी कांग्रेस की तानाशाही सोच का उदाहरण यह है कि आपातकाल में लोकतंत्र बचाने के लिए लड़ने वाले लोगों जिन्हें मीसाबंदी और डीआईआर बंदी कहा जाता है उनकी पेंशन पर डाका डालती है। आपातकाल के दौरान 1975 से 1977 के बीच जिन लोगों को राष्ट्रीय आंतरिक सुरक्षा अधिनियम 1971 का हवाला देते हुए जिन्हें बंदी बनाया गया था, उन्हें मीसा बंदी कहा जाता है। वहीं इसी वक्त में भारत रक्षा नियम-1971 (डिफेंस ऑफ इंडिया रूल्स 1971) के मुताबिक जेल में डाले गए लोग डीआईआर बंदी कहलाते हैं। इन लोकतंत्र सेनानियों के सम्मान में राष्ट्रवाद की विचारधारा से पोषित सरकारों ने पेंशन की व्यवस्था की। परन्तु बड़ी कोफ्त होती है कि जिस भी राज्य में कांग्रेस की सरकार आती है, वह आते ही इनकी पेंशन बंद कर देती है। इससे साबित होता है कि कांग्रेस की सोच आज भी आपातकाल के पक्ष में खड़ी है।
और भी पढ़ें
दुनिया भर में विचारधाराओं की लड़ाई सदियों से चली आ...
एक व्यवसाई होने के नाते मैं अक्सर महसूस करता था...
भारतीय जनता पार्टी के नेतृत्व में हाल ही में हरियाणा...
भाजपा सरकार का दूरदर्शी निर्णय
सरकार बदलने पर मीसाबंदी और डीआईआर बंदी रहे लोकतंत्र सेनानियों की पेंशन बंद होने पर उनके साथ वृद्धावस्था में आर्थिक समस्या खड़ी हो जाती है जो उनके सामाजिक जीवन को बुरी तरह प्रभावित करती है। राजस्थान की भाजपा सरकार अब एक ऐसा कानून लाने की योजना बना रही है, जिससे इस पेंशन को भविष्य में कोई भी सरकार बंद नहीं कर सकेगी। यह निर्णय एक मील का पत्थर साबित होगा। मुख्यमंत्री भजनलाल शर्मा की सरकार इसके लिए एक प्रभावी विधेयक लाने की तैयारी कर रही है। यह विधेयक कांग्रेस की कुत्सित सोच पर एक चोट होगा।
राजस्थान में यह होगा अनूठा
राजस्थान में ही करीब ग्यारह सौ से अधिक मीसा और डीआईआर बंदी हैं। राजस्थान सरकार ने ही वर्ष 2008 में मीसाबंदियों को लोकतंत्र सेनानी घोषित किया था। इसके तहत तब उन्हें 6000 रुपये की पेंशन और 500 रुपये की मेडिकल सुविधा प्रत्येक महीने देनी शुरू की थी। इसके बाद यह पेंशन बढ़कर 20 हजार और 4 हजार की मेडिकल सहायता तक पहुंची। परन्तु 2009 और 2019 में कांग्रेस सरकार ने आते ही मीसा बंदियों की पेंशन और अन्य सुविधाएं बंद कर दी। यह लोकतंत्र सेनानियों के हक और समर्पण पर कुठाराघात रहा। अब राजस्थान की भाजपा सरकार बनने के बाद, मीसा बंदियों को फिर से पेंशन देने का निर्णय लिया गया है। इसके तहत उन्हें अब बीस हजार रुपए पेंशन और चार हजार रुपए की मेडिकल सुविधा प्रत्येक महीने दी जाएगी। भजनलाल सरकार का मीसा बंदियों को पेंशन देने का यह निर्णय भारतीय लोकतंत्र की रक्षा के लिए संघर्ष करने वाले लोकतंत्र वीरों के प्रति एक प्रभावी सम्मान प्रकट करता है। ऐसे सेनानी जिन्होंने आपातकाल के दौरान भीषण अत्याचारों का सामना किया। भाजपा सरकार का यह कदम उनके बलिदानों को सम्मान और उनके हितों की सुरक्षा का वचन देता है। आपातकाल की बरसी पर मैं लोकतंत्र बचाने की मुहिम में समर्पित भाव से लड़ने वाले तमाम वीरों को नमन करता हूं।
-सीताराम पोसवाल की कलम से...