Bhagwan Birsa Munda
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भगवान बिरसा मुंडा: आदिवासी स्वाभिमान और स्वतंत्रता संग्राम के अग्रदूत


मैं अक्सर सोचता हूं कि एक साधारण परिवार में पैदा होने वाला व्यक्ति किस तरह पीढ़ियों तक याद रखा जाता है। भगवान बिरसा मुंडा मुझे मेरे इस सवाल का उत्तर देते हैं। न केवल जल—जं​गल—जमीन का संरक्षण करने के लिए भगवान बिरसा मुंडा को याद किया जाना चाहिए, बल्कि आदिवा​सी संस्कृति और धार्मिक स्वतंत्रता के रक्षक के सर्वोच्च प्रतीक के रूप में भी वे हमेशा पूज्य रहेंगे।

भगवान बिरसा मुंडा का जीवन संघर्ष, साहस और स्वाभिमान का ऐसा प्रतीक है जो भारत भर के ​वंचितों और पिछड़ों को राह दिखाते हैं। भगवान बिरसा मुंडा के दुनिया में अवतरण के 150वें वर्ष पर, हम उनके रूप में एक ऐसे नायक को नमन करते हैं जिन्होंने न केवल आदिवासी समाज की अस्मिता और अधिकारों की रक्षा की। बल्कि स्वतंत्रता संग्राम में भी अपना अनूठा और अविस्मरणीय योगदान प्रभावी रूप से दिया। उनकी ओर से जल, जंगल, जमीन के अधिकारों के लिए लड़ाई ने उन्हें ‘धरती आबा’ का विशिष्ट सम्मान दिलाया। यही वजह रही कि न केवल आदिवासी समाज बल्कि तमाम वंचितों, पिछड़ों और द​लितों—दमितों के लिए वे भगवान बन गए। भगवान बिरसा मुंडा की महान विरासत आज भी वंचित, शोषित और पिछड़े वर्गों के लिए प्रेरणा का अनूठा स्त्रोत है। उनकी यही महान विरासत हर किसी को अपने हक के लिए खड़े होने का साहस और प्रेरणा देती है। यही नहीं भगवान बिरसा मुंडा ने ईसाई मिशनरीज के कुचक्रों का दमन करके आदिवासियों को धर्म और उसके महत्व की समझ भी प्रदान की।

भगवान बिरसा मुंडा केवल आदिवासी समाज के ही नहीं महानायक थे। बल्कि वे उन तमाम स्वतंत्रता सेनानियों में से एक थे जिन्होंने अंग्रेजों के खिलाफ लड़ाई में अपनी अमिट और अनूठी छाप छोड़ी। भगवान बिरसा मुंडा का जीवन और संघर्ष उस समय के भारतीय समाज और आदिवासी समुदाय के साहस का प्रतीक है। जब अंग्रेजी हुकूमत आदिवासियों को जल, जंगल, जमीन से दूर करने का कुचक्र रच रही थी। तब भगवान बिरसा मुंडा जी ने न केवल इस षड्यंत्र के खिलाफ आवाज उठाई। बल्कि उन्होंने अदम्य इच्छाशक्ति और संघर्ष के बल पर आदिवासियों के लिए एक मार्गदर्शक के रूप में उभरे। उन्हीं की प्रेरणा और आह्वान पर लाखों आदिवासियों ने भारत की महान थांती की रक्षा का साहस जुटाया।

प्रारंभिक जीवन और संघर्ष का प्रारंभ

बिरसा मुंडा का जन्म 15 नवंबर 1875 को एक गरीब आदिवासी परिवार पिता सुगना पुर्ती और माता करमी पुर्ती के यहां हुआ। जन्म से ही उन्होंने अभावों में जीवन बिताया, लेकिन उनकी संघर्षशील प्रवृत्ति ने उन्हें महानता की ओर आगे बढ़ाया। जब उन्हें चाईबासा स्थित गोस्नर स्कूल में पढ़ाई के लिए भेजा गया, तो उन्होंने महसूस किया कि ईसाई मिशनरियों का मकसद आदिवासियों को उनके धर्म और संस्कृति से दूर करना है। किसी व्यक्ति से उसका धर्म छीन लिया जाए तो उसकी संस्कृति ही खो जाती है। संस्कृति के बिना मनुष्य जीवन, समाज और चैतन्यता का अभाव स्पष्ट नजर आता है। यही भगवान बिरसा मुंडा के उनके जीवन का वह मोड़ शुरू होता है जहाँ उन्होंने तय कर लिया कि वे अपने समाज के अस्तित्व और अस्मिता के लिए संघर्ष करेंगे। हम सभी को अपने जीवन में एक ऐसे मोड़ की आवश्यकता नजर आती है।

आदिवासी अस्मिता के प्रतीक भगवान बिरसा मुंडा

19वीं शताब्दी के अंत में ही अंग्रेजों की जमींदारी प्रथा ने आदिवासियों को उनके प्राकृतिक संसाधनों से दूर करना शुरू कर दिया। अंग्रेज भारत की वन संपदा और प्राकृतिक संसाधनों की महत्ता जानते थे और उन्होंने इसे कब्जे करने की कोशिशों को अपनी कुत्सित मंशा के अनुसार मूर्त रूप देना शुरू किया। भगवान बिरसा मुंडा इस चाल को समझे और उन्होंने इस अन्याय के खिलाफ खड़े होने का संकल्प किया। उन्होंने देखा कि अंग्रेज न केवल आदिवासियों के जल, जंगल और जमीन पर कब्जा जमा रही थी। बल्कि आदिवासियों की अपनी विशिष्ट सांस्कृतिक विरासत और धार्मिक स्वतंत्रता को भी खतरे में डाल रही थी। इसके खिलाफ उन्होंने आदिवासी विद्रोह का आह्वान किया, जिसे ‘उलगुलान’ कहा गया। यह सिर्फ एक विद्रोह नहीं था, बल्कि आदिवासी अस्मिता और स्वायत्तता की रक्षा का संग्राम था। उन्होंने आदिवासियों को संगठित किया और उन्हें उनकी सांस्कृतिक जड़ों की ओर लौटने के लिए प्रेरित किया।

भगवान बिरसा मुंडा और आदिवासी पुनरुत्थान

भगवान बिरसा मुंडा ने सनातन वैष्णव धर्म की ओर झुकाव रखते हुए आदिवासियों को उनके पारंपरिक रीति-रिवाजों, धर्म और संस्कृति से जोड़ने का काम किया। उन्हें ‘धरती आबा’ कहा जाने लगा, और वे आदिवासियों के लिए भगवान बन गए। उनकी शिक्षाओं का प्रभाव यह हुआ कि आदिवासी मिशनरियों के चंगुल से बाहर आने लगे। आदिवासी निश्चित रूप से अपने धार्मिक और सांस्कृतिक मूल्यों की ओर लौटने लगे। भगवान बिरसा मुंडा आदिवासियों को बताते थे कि हैजा, चेचक जैसी बीमारियाँ ईश्वर का प्रकोप नहीं, बल्कि इलाज योग्य रोग हैं। बिरसा ने आदिवासियों के बीच शिक्षा और स्वास्थ्य के महत्व को प्रभावी रूप से बढ़ावा दिया।

भगवान बिरसा मुंडा का बलिदान

1895 में अंग्रेजों ने बिरसा मुंडा को गिरफ्तार कर लिया और उन्हें रांची जेल में डाल दिया। वहां उन्हें विषाक्त पदार्थ देकर मार दिया गया, ताकि उनका विद्रोह हमेशा के लिए दबा दिया जा सके। लेकिन भगवान बिरसा मुंडा मरे नहीं, बल्कि अमर हो गए। उनके निधन ने अंग्रेजी हुकूमत के खिलाफ आदिवासी प्रतिरोध को और मजबूती दी। उनकी स्मृति में आज भी भारत के लोग बिरसा मुंडा को भगवान मानते हैं और उनकी पूजा करते हैं।

जनजातीय गौरव दिवस की महत्ता

भारत की नरेन्द्र मोदी सरकार ने 15 नवंबर को बिरसा मुंडा की जयंती को जनजातीय गौरव दिवस के रूप में मान्यता दी है। यह दिन न केवल बिरसा मुंडा के योगदान को याद करने का अवसर है, बल्कि आदिवासी समाज के सभी स्वतंत्रता सेनानियों की स्मृति को भी संजोने का दिन भी है। जिन्होंने भारत की स्वतंत्रता के लिए अपने प्राणों की आहुति दी, उन्हें याद करने का दिन है।

भगवान बिरसा मुंडा का जीवन हर भारतीय के लिए प्रेरणास्त्रोत है, विशेषकर आदिवासी समाज के लिए। उनके बलिदान को सदियों तक याद रखा जाएगा और उनकी गौरवगाथा से न केवल भारत का इतिहास बल्कि हर संघर्षशील व्यक्ति का हौसला बुलंद होगा।

समाज के दलित, वंचित, दमित, शोषित और पिछड़े तबकों में जन्म लेने वाले बच्चों के लिए उम्मीद की किरण अक्सर नजर नहीं आती। वे समाज के कठिनाइयों भरे ढांचे में खुद को असहाय महसूस करते हैं, लेकिन इस अंधकार में भी उन्हें प्रेरणा देने वाले महानायक हैं—भगवान बिरसा मुंडा। उनका जीवन संघर्ष और साहस की ऐसी मिसाल है जो इन तबकों के बच्चों के लिए न केवल उम्मीद का प्रकाश बनकर उभरता है बल्कि उनके आत्म-सम्मान और अधिकारों के प्रति जागरूकता की राह भी दिखाता है। बिरसा मुंडा का संघर्ष हर उस बच्चे के लिए एक संदेश है कि विपरीत परिस्थितियों में भी अपने अधिकारों के लिए खड़े होकर समाज में बदलाव लाया जा सकता है।

 

धरती के लाल, वीर बिरसा नाम,
जन-जन में फैला जिनसे पैगाम।
जंगल, जमीन अपने हक की पुकार,
तूने ही उठाई थी आज़ादी की धार।

 

अधिकारों की लौ जलाई जो तूने,
हर दिल में उम्मीद जगाई जो तूने।
मिशनरियों के कुचक्रों को मिटाया
दुष्ट फिरंगियों को भी छकाया।

 

त्याग, तपस्या, साहस तेरी पहचान,
तेरी राह चले यह सारा जहान।
धरती आबा, तेरी गाथा महान,
तू आदिवासियों का है भगवान।

 

तेरे जन्म के ये डेढ़ सौ साल,
हर दिल से उठे जयघोष, तुझे नमन।
भगवान बिरसा, तुझको वंदन,
तेरी प्रेरणा से चमके भारत का गगन।

एक छोटे से गांव के एक पशुपालक गुर्जर परिवार में पैदा हुआ मैं सीताराम पोसवाल गौ सेवक[Sitaram Poswal Gau Sevak]। अपने शब्दों से भगवान बिरसा ​मुंडा को श्रद्धांजलि देता हूं।

— सीताराम पोसवाल

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